सामवेदीय #छांदोग्य उपनिषद मनुष्य की ११६ वर्ष की आयु की सङ्कल्पना करता है।
गायत्री छंद के २४ अक्षरों से आरम्भ के २४ वर्ष, त्रिष्टुभ के ४४ से अगले ४४ वर्ष तथा जगती के ४८ अक्षरों से अंतिम ४८ वर्ष। ऐतरेय महिदास का उदाहरण भी दिया गया है।
ऐतरेय इतरा के पुत्र थे तथा उन्होंने ऋग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मण का दर्शन किया था।
पूरा अंश इस प्रकार है।
#सत्यकाम #जाबाल के गुरु हारिद्रुमत गौतम ने उन्हें चार सौ कृश एवं बलहीन गायें दे कर कहा कि ये गायें ले कर प्रस्थान करो, इन्हें तब तक चराना जब एक सहस्र न हो जायें। सत्यकाम ने कहा कि ऐसा ही होगा।
गायें एक हजार हो गईं तो ऋषभ (साँड़) ने कहा कि संख्या पूर्ण हुई, अब आचार्य के पास हमें ले चलो। क्या मैं तुम्हें ब्रह्म का एक पाद बताऊँ? सत्यकाम ने उत्तर दिया कि भगवन् ! अवश्य बतायें। ऋषभ ने उपदेश दे कर कहा कि अगला पाद अग्निदेव बतायेंगे।
चलते चलते साँझ हो गयी तो अग्नि प्रज्ज्वलित कर सत्यकाम ने समिधायें अर्पित कीं तथा समक्ष पूर्वाभिमुख हो कर बैठ गये। अग्निदेव ने भी वही प्रश्न किया, सत्यकाम ने वही उत्तर दे कर दूसरा भाग प्राप्त किया। तब अग्नि ने कहा कि ब्रह्म का तीसरा पाद हंस बतायेगा।
एक साँझ और बीती। गायों के साथ अग्निदेव की साक्षी में जाबाल ने ब्रह्म का तीसरा पाद हंस से जाना। हंस ने कहा कि चौथा पाद मद्गु जलपक्षी बतायेगा। एक साँझ और हुई तथा अग्नि की साक्षी में जाबाल ने मद्गु से ब्रह्म का चौथा एवं अंतिम पाद पाया।
सत्यकाम आचार्य के पास पहुँचे तो आचार्य ने कहा कि तुम्हारा मस्तक ब्रह्मवेत्ता की भाँति भासित हो रहा है। सत्यकाम ने उत्तर दिया कि मुझे मनुष्यों से भिन्न (चेतन तत्त्वों) ने उपदेश दिया है, अब आप उपदेश करें। ऋषि के उपदेश पश्चात - न किञ्चन वीयायेति वीयायेति ! किञ्चित भी जानना शेष न रहा।
...
उपदेश क्या थे? जानने हेतु उपनिषद पढ़ें।
...
केवल उपदेश शुष्क होता। साधारण सी प्रतीत होने वाली कथा ने इसमें रोचकता एवं अर्थवत्ता भर दी है। ऋषभ ने दिक्काल प्रकाश का उपदेश दिया, अग्नि ने पृथ्वी, समुद्र, अंतरिक्ष एवं द्युलोक को समेटे अनंत का उपदेश किया।
हंस ने ज्योतिस्वरूप अग्नि, सूर्य, चंद्र एवं विद्युत का उपदेश किया तथा जल पक्षी ने प्राण, श्रोत्र, चक्षु एवं मन का।
देखें तो चारो बाह्य कारक हैं जो सहजबोध, प्रेक्षण एवं मनन से प्राप्त ज्ञान को दर्शाते हैं। सत्यकाम ने स्वयं ही लग कर प्राप्त किया। आचार्य ने दीक्षा दे दी किन्तु आश्रम में नहीं रखा। माता के नाम को ही गोत्र बताने वाले को दीक्षित कर देना आचार्य द्वारा साहसी कृत्य था किन्तु जिसे दीक्षित किया था, उसे अपनी पात्रता को विशेष रूप से सिद्ध भी करना था अत: उन्हें वन को पठा दिया। विशेष सिद्धि का मार्ग भी विशेष होना चाहिये कि नहीं? राम को भी तो १४ वर्ष वन में व्यतीत करने पड़े थे! इतना सब होते हुये भी समाहार हेतु मनुष्य की उस मेधा की आवश्यकता रहती है जो ऋषि हो चुकी है।
परम्परा भी ऋषि सदृश ही होती है, जाने कितने मंत्र भीतर संग्रहित किये रहती है, उद्घाटन हेतु कोई सत्यशोधक सत्यकाम जाबाल आवश्यक होता है। इस कारण ही जो है, उसे बचाये रखने की आवश्यकता होती है। अवतारों पर विचार करेंगे तो पायेंगे कि वे सहसा ही नहीं हो गये, उनके आगमन की भूमिका में जाने कितना कुछ अर्पित हुआ, मौन साधना के साथ, बिना किसी आसक्ति के, समर्पण भाव के साथ।
शबरी, शरभङ्ग, अगस्त्य, सुतीक्ष्ण आदि न होते तो राम राम न हो पाते! कथाओं में सहज सत्य गूढ़ बना कर सँजो दिये जाते हैं क्यों कि मानव मन बहुधा सहज को स्वीकार ही नहीं पाता !
...
आचार्य हो जाने पर सत्यकाम ने अपने एक शिष्य उपकोसल कामलायन के साथ वही किया जो उनके साथ गुरु गौतम ने किया था। बारह वर्ष तक उपकोसल अग्निचर्या करते रहे किंतु अन्य सबका समावर्तन कर आचार्य सत्यकाम ने उनका समावर्तन नहीं किया तो नहीं किया। पत्नी ने भी अनुरोध किया किंतु सत्यकाम बिना कुछ कहे ही प्रवास पर चले गये।
उपकोशल ने अनशन ठान ली तो अग्नियों ने मिल कर उन्हें उपदेश किया। गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि, आहवनीय ने मिल कर उन्हें ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया। तब तक आचार्य सत्यकाम लौट आये। आचार्य ने उनसे वही बात दुहराई जो कभी उनके आचार्य ने कही थी - तुम्हारा मुख ब्रह्मवेत्ता की भाँति भासित है किंतु तुम्हें इन अग्नियों ने केवल लोक का ज्ञान दिया है। मैं तुम्हें वह ज्ञान देता हूँ जिससे पापकर्म लिप्त नहीं होते ...
...
उपदेश आगे तक चला। कथा एक प्रयोगधर्मी परम्परा की ओर सङ्केत करती है जिसमें सुपात्र स्वर्ण का चयन कर उसे अग्नि रूपी नवोन्मेषी चिंतनपद्धति में ठेल दिया जाता था।
आश्चर्य नहीं कि 'गुरु गुड़ चेला चीनी' के अनेक उदाहरण मिलते हैं।
...
पाञ्चाल राजा अग्निविद्या के ज्ञाता थे। पिता पुत्र आरुणि एवं श्वेतकेतु ने उनसे इस विद्या को प्राप्त किया था।
केकय देश के राजा वैश्वानर विद्या के ज्ञाता थे जिनसे आरुणि, औपमन्वय, सत्ययज्ञ, भाल्लवि, इंद्रद्युम्न, शार्कराक्ष्य एवं बुडिल ने वह विद्या प्राप्त की थी।
महाशाला एवं महाश्रोत्रिय शब्द प्रयोगों से विशिष्ट गृहस्थ ज्ञानियों के होने के प्रमाण भी मिलते हैं।
यह सब तब ही हो सकता है जब शान्ति हो, भौतिक समृद्धि हो तथा जीवन में रिक्त समय हो। सुदूर पश्चिम से पूरब में मिथिला तक राजन्य वर्ग का ऐसा होना उत्पादन की प्रचुरता एवं एक बहुत ही संतुलित व्यवस्था का परोक्ष प्रमाण है। वस्तुत: उपनिषदों में पग पग पर वह भौतिक समृद्धि झाँकती दिख जाती है जिसके बिना यह सब सम्भव नहीं था।
विद्याओं की झाँकी देखें।
गायत्री छंद के २४ अक्षरों से आरम्भ के २४ वर्ष, त्रिष्टुभ के ४४ से अगले ४४ वर्ष तथा जगती के ४८ अक्षरों से अंतिम ४८ वर्ष। ऐतरेय महिदास का उदाहरण भी दिया गया है।
ऐतरेय इतरा के पुत्र थे तथा उन्होंने ऋग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मण का दर्शन किया था।
पूरा अंश इस प्रकार है।
#सत्यकाम #जाबाल के गुरु हारिद्रुमत गौतम ने उन्हें चार सौ कृश एवं बलहीन गायें दे कर कहा कि ये गायें ले कर प्रस्थान करो, इन्हें तब तक चराना जब एक सहस्र न हो जायें। सत्यकाम ने कहा कि ऐसा ही होगा।
गायें एक हजार हो गईं तो ऋषभ (साँड़) ने कहा कि संख्या पूर्ण हुई, अब आचार्य के पास हमें ले चलो। क्या मैं तुम्हें ब्रह्म का एक पाद बताऊँ? सत्यकाम ने उत्तर दिया कि भगवन् ! अवश्य बतायें। ऋषभ ने उपदेश दे कर कहा कि अगला पाद अग्निदेव बतायेंगे।
चलते चलते साँझ हो गयी तो अग्नि प्रज्ज्वलित कर सत्यकाम ने समिधायें अर्पित कीं तथा समक्ष पूर्वाभिमुख हो कर बैठ गये। अग्निदेव ने भी वही प्रश्न किया, सत्यकाम ने वही उत्तर दे कर दूसरा भाग प्राप्त किया। तब अग्नि ने कहा कि ब्रह्म का तीसरा पाद हंस बतायेगा।
एक साँझ और बीती। गायों के साथ अग्निदेव की साक्षी में जाबाल ने ब्रह्म का तीसरा पाद हंस से जाना। हंस ने कहा कि चौथा पाद मद्गु जलपक्षी बतायेगा। एक साँझ और हुई तथा अग्नि की साक्षी में जाबाल ने मद्गु से ब्रह्म का चौथा एवं अंतिम पाद पाया।
सत्यकाम आचार्य के पास पहुँचे तो आचार्य ने कहा कि तुम्हारा मस्तक ब्रह्मवेत्ता की भाँति भासित हो रहा है। सत्यकाम ने उत्तर दिया कि मुझे मनुष्यों से भिन्न (चेतन तत्त्वों) ने उपदेश दिया है, अब आप उपदेश करें। ऋषि के उपदेश पश्चात - न किञ्चन वीयायेति वीयायेति ! किञ्चित भी जानना शेष न रहा।
...
उपदेश क्या थे? जानने हेतु उपनिषद पढ़ें।
...
केवल उपदेश शुष्क होता। साधारण सी प्रतीत होने वाली कथा ने इसमें रोचकता एवं अर्थवत्ता भर दी है। ऋषभ ने दिक्काल प्रकाश का उपदेश दिया, अग्नि ने पृथ्वी, समुद्र, अंतरिक्ष एवं द्युलोक को समेटे अनंत का उपदेश किया।
हंस ने ज्योतिस्वरूप अग्नि, सूर्य, चंद्र एवं विद्युत का उपदेश किया तथा जल पक्षी ने प्राण, श्रोत्र, चक्षु एवं मन का।
देखें तो चारो बाह्य कारक हैं जो सहजबोध, प्रेक्षण एवं मनन से प्राप्त ज्ञान को दर्शाते हैं। सत्यकाम ने स्वयं ही लग कर प्राप्त किया। आचार्य ने दीक्षा दे दी किन्तु आश्रम में नहीं रखा। माता के नाम को ही गोत्र बताने वाले को दीक्षित कर देना आचार्य द्वारा साहसी कृत्य था किन्तु जिसे दीक्षित किया था, उसे अपनी पात्रता को विशेष रूप से सिद्ध भी करना था अत: उन्हें वन को पठा दिया। विशेष सिद्धि का मार्ग भी विशेष होना चाहिये कि नहीं? राम को भी तो १४ वर्ष वन में व्यतीत करने पड़े थे! इतना सब होते हुये भी समाहार हेतु मनुष्य की उस मेधा की आवश्यकता रहती है जो ऋषि हो चुकी है।
परम्परा भी ऋषि सदृश ही होती है, जाने कितने मंत्र भीतर संग्रहित किये रहती है, उद्घाटन हेतु कोई सत्यशोधक सत्यकाम जाबाल आवश्यक होता है। इस कारण ही जो है, उसे बचाये रखने की आवश्यकता होती है। अवतारों पर विचार करेंगे तो पायेंगे कि वे सहसा ही नहीं हो गये, उनके आगमन की भूमिका में जाने कितना कुछ अर्पित हुआ, मौन साधना के साथ, बिना किसी आसक्ति के, समर्पण भाव के साथ।
शबरी, शरभङ्ग, अगस्त्य, सुतीक्ष्ण आदि न होते तो राम राम न हो पाते! कथाओं में सहज सत्य गूढ़ बना कर सँजो दिये जाते हैं क्यों कि मानव मन बहुधा सहज को स्वीकार ही नहीं पाता !
...
आचार्य हो जाने पर सत्यकाम ने अपने एक शिष्य उपकोसल कामलायन के साथ वही किया जो उनके साथ गुरु गौतम ने किया था। बारह वर्ष तक उपकोसल अग्निचर्या करते रहे किंतु अन्य सबका समावर्तन कर आचार्य सत्यकाम ने उनका समावर्तन नहीं किया तो नहीं किया। पत्नी ने भी अनुरोध किया किंतु सत्यकाम बिना कुछ कहे ही प्रवास पर चले गये।
उपकोशल ने अनशन ठान ली तो अग्नियों ने मिल कर उन्हें उपदेश किया। गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि, आहवनीय ने मिल कर उन्हें ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया। तब तक आचार्य सत्यकाम लौट आये। आचार्य ने उनसे वही बात दुहराई जो कभी उनके आचार्य ने कही थी - तुम्हारा मुख ब्रह्मवेत्ता की भाँति भासित है किंतु तुम्हें इन अग्नियों ने केवल लोक का ज्ञान दिया है। मैं तुम्हें वह ज्ञान देता हूँ जिससे पापकर्म लिप्त नहीं होते ...
...
उपदेश आगे तक चला। कथा एक प्रयोगधर्मी परम्परा की ओर सङ्केत करती है जिसमें सुपात्र स्वर्ण का चयन कर उसे अग्नि रूपी नवोन्मेषी चिंतनपद्धति में ठेल दिया जाता था।
आश्चर्य नहीं कि 'गुरु गुड़ चेला चीनी' के अनेक उदाहरण मिलते हैं।
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पाञ्चाल राजा अग्निविद्या के ज्ञाता थे। पिता पुत्र आरुणि एवं श्वेतकेतु ने उनसे इस विद्या को प्राप्त किया था।
केकय देश के राजा वैश्वानर विद्या के ज्ञाता थे जिनसे आरुणि, औपमन्वय, सत्ययज्ञ, भाल्लवि, इंद्रद्युम्न, शार्कराक्ष्य एवं बुडिल ने वह विद्या प्राप्त की थी।
महाशाला एवं महाश्रोत्रिय शब्द प्रयोगों से विशिष्ट गृहस्थ ज्ञानियों के होने के प्रमाण भी मिलते हैं।
यह सब तब ही हो सकता है जब शान्ति हो, भौतिक समृद्धि हो तथा जीवन में रिक्त समय हो। सुदूर पश्चिम से पूरब में मिथिला तक राजन्य वर्ग का ऐसा होना उत्पादन की प्रचुरता एवं एक बहुत ही संतुलित व्यवस्था का परोक्ष प्रमाण है। वस्तुत: उपनिषदों में पग पग पर वह भौतिक समृद्धि झाँकती दिख जाती है जिसके बिना यह सब सम्भव नहीं था।
विद्याओं की झाँकी देखें।
उत्तम आलेख
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