Sunday, June 14, 2020

American White Guilt, भारत का भविष्य - वरेण्य क्या है?


https://www.facebook.com/vitaliy.dzyuba/videos/10217440508261655/ 

ऊपर का विडियो देखें, श्वेत महिला कालों के जूते चूम रही है! 
श्वेत अपराधबोध की परिणति यही होती है। संसार में जितना अत्याचार, लूट व विनाश दोनों अब्राहमिक पंथों ने किया, उतना किसी अन्य पन्थ ने नहीं। क्या कारण है कि इसाइयों में अपराधबोध घर कर गया जबकि मुसलमान अपने पैशाचिक कृत्यों पर गर्व करते हैं? इस विडियो में बाइबिल की भविष्यवाणी का संदर्भ दे कर काले अपने इस कर्म का औचित्य बता रहे हैं। सनातनियों में भी ऐसे बहुत मिलेंगे जो 'कलिकाल' के बारे में की गयी भविष्यवाणियों को सच मानते हैं तथा संकुचित हो, बच बचा कर जीने व बच्चे बड़े करने में विश्वास रखते हैं। उन्हें ले दे कर यही उपयुक्त मार्ग लगता है, अपने 'ठीक' से जी लें, भविष्य हेतु राम रचि राखा है है!   
मानव मनोविज्ञान बहुत ही जटिल होता है, विश्लेषण तो बहुत किया जा सकता है किन्तु आवश्यकता प्रक्रिया के विश्लेषण की नहीं, परिणति के विश्लेषण की है। परिणति ही प्रक्रिया के उचित मार्ग को सुनिश्चित करे। यहीं विवेकानंद प्रासङ्गिक हो जाते हैं, जो निर्भयता, पौरुष और क्षात्रभाव की बातें करते पूरे जीवन सक्रिय रहे। उन्होंने सूत्र रूप में बड़ी बात कही कि जो कुछ भी मनुष्य को निर्बल करे, क्लीव बनाये वह विष के समान त्याज्य है।
श्वेत अपराधबोध की जड़ उनकी उस विषैले शिक्षातंत्र में है जो political correctness और कथित मानवताबोध का आधार ले कर वास्तव में वाम-विष सूक्ष्म रूप से विद्यार्थियों के मन में inject करता है और ठीक यही भारत में भी हो रहा है। हमारी पीढ़ी अपने मूल से कटी व आत्मघृणा में पगी नयी पीढ़ी से साक्षात हो रही है। अगले बीस वर्षों में भारत में भी ऐसा दिखने लगे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये।
शिक्षा ही मनुष्य को मनुष्य बनाती है और दुर्भाग्य से हमारा पूरा शिक्षातंत्र विषैला है जिसके उपचार हेतु कुछ नहीं किया जा रहा, कुछ भी नहीं।
मुसलमान भी उसी शिक्षातंत्र से हैं किंतु हममें से अत्यल्प ने उनकी मजहबी शिक्षापद्धति की पकड़ उनके परिवारों पर देखी है। वैसे भी हमारा शिक्षातंत्र उन्हें पीड़ित व शोषित ही चित्रित करता है, जो उनके एजेण्डे के अनुकूल ही पडता है। दलहितैषी हों या मुसलमान, इस कारण ही मीम-भीम हो जाते हैं।
इसाई संसार में चर्च के प्रति दुराव व उपेक्षा बढ़ रहे हैं जिसकी क्षतिपूर्ति वे कथित १०/४० पट्टी की येन केन प्रकारेण, धूर्तता, कपट आदि के द्वारा मतांतरण से कर रहे हैं।

उत्तरी अक्षांश दस से चालिस के बीच की पट्टी को विश्व मानचित्र पर देखें, इसमें वह जनसंख्या निवास करती है जो हिंदू है, बौद्ध है, अनाब्रहमी है। चूँकि मतांतरण अभियान की धन आपूर्ति का सोता श्वेत अपराधबोध ग्रस्त क्षेत्रों से ही है, इनका मार्ग प्रत्यक्ष न हो कर अप्रत्यक्ष है और 'धीमे किंतु निश्चित' पर विश्वास करता है।
मुसलमानों का मार्ग भिन्न है - 'जनसंख्या उत्पादन' व 'इलाका जिहाद' का। चुपचाप जनसंख्या बढ़ाते हुये किसी भी क्षेत्र विशेष में सामान्य अपराधवृत्ति द्वारा बहुसंख्यकों में भय भरो जिससे वे पलायन को बाध्य हो जायें और इस प्रकार टुकड़ा टुकड़ा दीन की फतह होती रहे। कैराना, मेवात, आजमगढ़, दिल्ली, हैदराबाद, मुम्बई आदि के कुछ बड़े भाग ऐसे ही दारुल इस्लाम है जहाँ पुलिस क्या, सेना भी जाने से पूर्व बड़े उपाय करेगी। बिजली मीटर की रीडिंग नहीं ली जाती, जो बता दे मियाँ वही लिख लो और दफा हो। यही स्थिति जनगणना के समय होती है।
हम और हमारे आप के बच्चे क्या कर रहे हैं? सारे पंथ एक समान, धर्म अफीम है, सभी बुरे एक हैं जैसी मूर्खताओं को आँखें मूँदे चयनित रूप से लागू कर रहे हैं। कोई जगा हुआ कुछ कहता है या स्वर उठाता है या तो घर परिवार वाले ही चुप करा देते हैं या दीनियों द्वारा जिबह कर दिया जाता है, एक को मारो एक लाख आतंकित होंगे, भारतीय न्याय व्यवस्था  का क्या, तारीख पर तारीख के पश्चात अन्तत: छूट ही जाओगे, जिहाद का सवाब तो मिलना ही है।
ऐसे में - 
- अपने शास्त्रों का स्वयं अध्ययन करें तथा बच्चों को भी करवायें। उनमें भी ऐसा बहुत कुछ है जो अब अप्रासंगिक है, सार्वकालिक नहीं तथा जिसका महत्त्व अकादमिक अध्ययन के अतिरिक्त कुछ नहीं है, उसकी उपेक्षा करें। ऋषि मुनि मांसाहारी थे या नहीं, परशुराम ने २१ बार सभी क्षत्रियों का समूल नाश किया या ९९ बार, सबका किया या केवल अत्याचारियों का, ब्राह्मणों ने सबका शोषण किया जैसी गौण बातें आपके विमर्श के केंद्र में हैं। विश्लेषण ठीक है किंतु ज्वलंत व मुख्य समस्याओं से मुख मोड़ कर एक सीमा से आगे इन्हीं सब में रत रहना आत्मरति को जन्म देता है, भौंड़े ढंग से कहें तो हस्तमैथुन समान जिससे कुछ नहीं उपजना सिवाय क्षणिक मजे के! 
जातिवादी आग्रह व अन्य जो कलुष हैं यथा शाकाहारी होने पर स्वयं को धरा से ऊपर का देवता मानना तथा मांसाहारियों को पतित मानना, समस्या की विराटता से मुँह मोड़ कर व्यर्थ के वितण्डे में पड़ना, अपने आग्रहों हेतु तोड़ मरोड़ करना, झूठ व कपट का आश्रय लेना आदि इत्यादि से दूर रहें।
- सब पंथ एक समान; सानूँ की; धर्म अफीम है; स्त्रियाँ, कथित दलित व कथित अल्पसंख्यक आदि सभी बहुत पीड़ित प्रताड़ित हैं; हम श्रेष्ठ हैं क्योंकि विशेष रज-वीर्य से उपजे हैं; सभी अपनी अपनी जाति आधारित गोलबंदियों में लगे हैं, हम क्यों नहीं? हमें पाँच हजार वर्षों से दबा कर रखा गया आदि इत्यादि मूर्खतापूर्ण आग्रहों को त्याग दें और ढंग से सोचने का अभ्यास करें कि संकट है और आप न चाहते हुये भी युद्ध में हैं।
- सक्रिय प्रतिरोध हेतु (प्रतिक्रिया मात्र नहीं) लगें रहें तथा बच्चों व युवाओं को भी लगायें। प्रतिरोध आत्मघाती व मूर्खतापूर्ण आवेगी कर्म न हो कर, सुविचारित व दूरदृष्टि युक्त हों जिनसे तात्कालिक व दूरगामी सुरक्षा तो सुनिश्चित हो ही, उत्पातियों में भी स्थायी भय बना रहे।
‌‌‌_________________
तस्मात् सर्वेषु कालेषु माम् अनुस्मर यथाशास्त्रम्। युध्य च युद्धं च स्वधर्मं कुरु। मयि वासुदेवे अर्पिते मनोबुद्धी यस्य तव स त्वं मयि अर्पितमनोबुद्धिः सन् मामेव यथास्मृतम् एष्यसि आगमिष्यसि असंशयः न संशयः अत्र विद्यते॥ 
॥ जय श्रीराम, जय योगेश, जय योगीश ॥
COPY PASTE FREE 

1 comment:

  1. मूलहीन पश्चिम के पास अपने ही खोदे गए गढ्डे में गिरने के अलावा कोई चारा नहीं, हमारी जड़ें कहीं अधिक मजबूत हैं। इसीलिए गिरते नहीं है, हां, शहरी या मैट्रो आबादी भले ही सेक्‍युलर जहर पीती हो, छोटे शहर और गांव अभी बहुत देरी से जद में आएंगे, तब तक संभवत: हम संभल जाएं।

    ReplyDelete