Saturday, February 9, 2019

व्यावहारिक बात : बच्चों को 'अपनी' कहानियाँ' सुनायें


हमारे नाना केवल पाँचवी पास थे, वैद्यकी में बड़े बड़े वैद्यों के कान काटने वाले। वनस्पतियों का जो अभिज्ञान उन्हें था, मैंने किसी अन्य में आज तक नहीं पाया। वे कहानियाँ सुनाते थे। लोक कथायें, पुराणों से भी। किसी भी देश की कहानियों में पुरनिये बसते हैं, उस देश की सञ्जीवनी होती है, भावनायें भी - प्रेम, घृणा, शोक, उत्साह आदि सभी। आप ध्यान देंगे तो पायेंगे कि कहानियों पर पले बढ़े इस देश ने अपनी घृणा का उपयोग कवच के रूप में भी किया। मुसलमानों के साथ व्यवहार प्रमाण है।
मैंने जो राजा, नरमांस, शाप वाली कथा बताई, वह पुराणों में, महाभारत में विविध रूपों में आई है किंतु उनसे बचपन में सुना रूप जैसे मन पर ट्ङ्कित रह गया।
पिताजी बहुश्रुत थे किंतु सार्वजनिक अभिव्यक्ति से बचते थे। उन्होंने बचपन में जो कहानियाँ सुनाईं, उनमें से कुछ ये ध्यान में आ रही हैं:
1. दाशराज्ञ युद्ध, विश्वामित्र की नदी स्तुति एवं श्यामकर्ण अश्व लेने हेतु पश्चिम प्रयाण
2. भीष्म की कथायें
3. भारत युद्ध पूर्व सञ्जय का धृतराष्ट्र को प्रबोधन, विदुरनीति एवं सनत्सुजातीय दर्शन
4. गीता उपदेश से पूर्व भगवान की मन:स्थिति
5. गोकर्ण एवं धुन्धकारी
6. मदालसा
7. नचिकेता, आरुणि, उपमन्यु आदि की कथायें
8. सगरपुत्र एवं भगीरथ
8. अरण्यकाण्ड में वर्णित श्रीराम
9. याज्ञवल्क्य, वाजसनेय एवं जनमेजय
10. अगस्त्य का दक्षिण अभियान
11. सिकंदर एवं पुरुषोत्तम
12. कुमारिल, बौद्ध एवं शंकर
13. सिंध के राजा दाहर
14. सोमनाथ
15. परमर्दिदेव
16. महाराणा एवं अकबर
17. दुर्गावती
भारत का मानचित्र बनाना पहली बार सीखा तो कौतुक में ही उनसे झड़प सी हो गयी। उस समय ही मेरे ऊपर सिन्ध, दाहर एवं उसकी पुत्रियों की कथा उद्घाटित हुई थी। बच्चों का मन कोरा पट होता है। उस पर माता पिता गुरुजन आदि जो 'लिखते' हैं, वह जन्म भर बना रहता है। कुछ बच्चों की मानसिक गढ़न ऐसी होती है कि वे वहीं से आगे बढ़ लेते हैं। बढ़ें या न बढें, अंतर्मन पर छाप अक्षुण्ण रहती है। आजकल के बच्चे उथले मानवतावाद, ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सब मजहब धर्म समान एवं हैरी पॉटर जैसी कथाओं पर बढ़ते हैं। हैरी पॉटर के अतिरिक्त आत्मघाती गान्‍धीवाद के विषय तो हमारे समय में भी पढ़ाये जाते थे किंतु हमें उनकी वास्तविकता से अभिभावकों ने अवगत रखा। आज कल के बच्चों के माताओं एवं पिताओं को ज्ञात ही नहीं तो बतायेंगे क्या, सुनायेंगे क्या? मोबाइल आने के पश्चात तो रिक्त समय में पढ़ने का अभ्यास ही नहीं रहा ! यूट्यूब पर प्रयास चल रहे हैं किंतु जिस प्रकार से चल रहे हैं, सन्तोषजनक तो नहीं ही हैं।
आप की जो अपनी पुरातन कहानियाँ हैं, वे कवच हैं, वे वह चाक हैं जिस पर नई पीढ़ी का मानस अब भी गढ़ा जा सकता है। ऐसे जाने कितनी प्रभावती स्त्रियाँ एवं प्रभापुरुष हैं जिनके बारे में बात ही नहीं होती - सुहेलदेव, झलकारी बाई, लोरिक, तब जब कि लोरिकाइन तो अनेक वर्षों से ग्रामगान रहा है। कहानियों को नये कलेवर देने की आवश्यकता है, जो आधुनिक काल के बच्चों हेतु palatable हों, प्रस्तुतिकरण में आधुनिक हो। ऐसा नहीं है कि प्रयास नहीं हो रहे किन्‍तु वे विपणन की धनदोहनी मानसिकता से ग्रस्त होने के कारण भले के स्थान पर अनहित ही अधिक कर रहे हैं। मुझे तो कभी कभी इस पर आश्चर्य होता है कि इस देश की उस मेधा को क्या हो गया है जिसने लखपदिया महाभारत एवं चार लाख श्लोकों वाले पुराण रचे, जिसने पञ्चतंत्र, सहस्ररजनीचरित्रं, कथासरित्सागर जैसी रचनायें रचीं? इनमें से किसी के भी रचनाकार ने येन केन प्रकारेण धन की कमाई हेतु लिखा हो, ऐसा नहीं है।

1 comment:

  1. मैंने भी अपने नानाजी से कई कहानियाँ सुनी थी,अत: न केवल अपनी बेटियों को वरन् अपने छात्रों को भी देशभक्तों,माता पिता व गुरु के भक्तों की कहानियाँ सुनाता हूँ। पिछले दो वर्षों से एक नया काम आरंभ किया है। अपनी कक्षा के सभी छात्रों को गीताप्रेस वाली बालोपयोगी पुस्तकें बाँटता हूँ। मेरे छात्र तो पढ़ते हैं, साथ ही उनके परिवार जन भी पढ़ते हैं।

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