किशोरों हेतु। बालकों एवं किशोरों के लिये लिखना संसार का सबसे कठिन काम है। वही अच्छे से कर पाते हैं जो या तो मन से बड़े सरल होते हैं या बड़े ही घाघ। मेरे जैसे साधारण व्यक्ति हेतु यह कठिन काम है, तब भी प्रयास करता हूँ।
देखो, मनुष्य की मेधा जब विकसित हो गई तो वह देह व परिवेश पर विविध प्रभाव डालने वाली ऋतुओं के आने जाने के निश्चित क्रम व समय पर दुहराव पर ध्यान देने लगा। सबसे स्पष्ट ऋतु थी वर्षा जब तपते आकाश से पानी झमाझम बरसने लगता।
उसने पाया कि ऊपर आकाश में दो पिण्ड ऐसे हैं जिनसे ऋतुओं के आने जाने का गणित जाना जा सकता है, दिन में सूर्य तो रात में चंद्रमा। चंद्रमा घटता बढ़ता तो उसके एक पूरे गोले से दूसरे गोले तक होने में पता चला कि २९ से ३० के बीच सूर्योदय होते हैं। ऐसे १२-१३ बार होने पर वर्षा ऋतु पुन: आ जाती। इन कुल ३५४ दिनों को क्या नाम दें? बरखा रानी पर ही रख दें? नाम रखा गया - वर्ष ।
मनुष्य की मानसिक क्षमता बढ़ती गयी तो आगे उसे यह भी लगा कि १२ - १३ पूर्णिमा से अच्छा गणित तो उस समय में है कि जब ऋतु सुखदायी हो, चारो ओर फूल खिल रहे हों, नई पत्तियाँ हों। तब तक मनुष्य वस्त्र पहनने लगा था। उसे लगा कि उस विशेष ऋतु में पेड़ पौधे भी पुराने वस्त्र उतार कर नये पहन लेते हैं। उसका नाम रखा गया - वसंत। उस समय ऐसा भी होता कि एक विशेष दिन अन्य दिनों की तुलना में सूरज इधर उधर का झुकाव तज ठीक नाक की सीध में उगता। उस दिन रात और उजाले के समय भी सम होते। ऐसा वर्ष में दो बार होता किंतु विशेष ऋतु वसंत और इस विशेष स्थिति का यह योग लगभग ३६६ दिनों में आता। उसने इसे नाम दिया - विषुव, वसन्त विषुव ।
तब तक किसी भारतवासी को यह भी पता लग चुका था कि विशेष प्रभाव वाली ऋतुयें ६ होती हैं। गणना की क्षमता बढ़ ही चुकी थी तो ३५४ और ३६६ का औसत निकाला गया ३६०। यह संख्या जादू वाली थी। ३० से बँट जाती, ६ से बँट जाती, १२ से भी बँट जाती। ३० तो चंद्रमा से ही पता चला था, उसे नाम दिया चंद्रमास या मास। १२ - १३ के लगभग से ठीक ठीक १२ का सूर्य से ही पता चला था तो ३०-३० के १२ आदित्य बने जोकि सूर्य का भी नाम है। बड़ी अच्छी बात थी कि १२x३० = ३६०। तीस तीस के बारह आदित्य बारह मास के नाम हो गये। सूर्यनमस्कार में हैं न बारह नाम!
तब तक मनुष्य आकाश निहारने की कला में प्रवीण हो चुका था। उसने पाया कि चंद्रमा के रात का पथ दिन में सूर्य के पथ के लगभग साथ ही होता है। यह भी पाया कि जो तारे थे, वे सब मिल कर भिन्न भिन्न आकार बनाते थे तथा वे आकार कभी परिवर्तित नहीं होते थे अर्थात सूर्य चंद्र की तुलना में तारे स्थिर थे। उसने आकारों को नाम दे दिये जैसे सूँड़ जैसी आकार वाली आकृति इंद्र देवता की सवारी हाथी ऐरावत हो गयी। कुछ ने उसमें बिच्छू देख लिया, कहीं भालू मिल गया तो कहीं राजा का सिंहासन।
चंदा भी बड़ा चञ्चल था। गोले से घटते घटते एक समय जाने कहाँ चला जाता और अगले ही दिन से पुन: थोड़ा थोड़ा बढ़ते हुये दिखने लगा। एक पूरे से एक विलोपन तक का समय मास का आधा था जिसे नाम दिया गया पक्ष। एक वर्ष में हो गये २४ पक्ष।
आकाश को आज के कैलेण्डर की भाँति प्रयोग किया जाने लगा। चंद्र के पथ को २४ भागों में बाँट कर विशेष तारों के नाम पर उनके नाम रख दिये गये। बताने में सुविधा हो गयी कि चंद्र अमुक भाग में है आज तो कल दूसरे वाले में होगा।
किंतु एक बात और भी थी कि स्थिर व विशिष्ट तारों वाले किसी भाग विशेष पर चंद्र पुन: २७ से कुछ अधिक दिन में पहुँचता। अत: ठीक ठीक स्थिति बताने के लिये चौबिस में से तीन के दो दो भाग, पूर्व व उत्तर, कर कुल २४+३ = २७ भाग बना दिये गये। इन्हें नाम दिया गया नक्षत्र, नक्ष कहते हैं निकट आने को, ये भाग सूर्य व चंद्र के पथ के सदैव निकट थे, इनका कभी क्षरण नहीं होता था, इस कारण भी कहलाये नक्षत्र।
कुछ लोग इन ज्ञानियों से भी चतुर थे कि यदि २७ से कुछ अधिक दिन लगते हैं तो क्यों न एक अंश ले कर २८ भाग बना दिये जाँय! किंतु २८ पूरा तो होता नहीं था। उससे निपटने हेतु अंश की व्यवस्था की गयी।
गाय चार पाँवों पर खड़ी होती है। पाँव संस्कृत शब्द पाद से बना है। यह पाया गया कि नक्षत्र आधारित मास २७ पूरे दिनों से एक दिन के लगभग लगभग चौथाई भाग इतना अधिक होता है जिसे यह कहा गया कि अट्ठाइसवें नक्षत्र को चार में से केवल एक पाद का अर्थात चौथाई भोग ही मिले तथा उसकी हेठी न हो, इसलिये उसका सबसे अच्छा नाम रखा गया, सबसे शुभ - अभिजित, सदा विजयी।
परंतु काल भला मानव के बाँधने से बँध पाया कभी? वास्तव में कथित अभिजित का समय चौथाई दिन से थोड़ा अधिक होता था २७+(१/४)= २७.२५ न होकर २७.३। यही स्थिति अन्य की भी थी। वर्ष ३६५ या ३६६ न हो कर ३६५.२५ दिनों का होता, घटती बढ़ती कलाओं के सापेक्ष मास ३० का न हो कर २९.५ दिन में ही पूरा हो जाता।
इन सबके समाधान के लिये गणित की जटिल प्रक्रियायें बनाई गईं। रुचि हो तो और आगे की पढ़ाई में यह विषय ले लेना। अभी तो इसे ही ढंग से समझने का प्रयास करो।
उसने पाया कि ऊपर आकाश में दो पिण्ड ऐसे हैं जिनसे ऋतुओं के आने जाने का गणित जाना जा सकता है, दिन में सूर्य तो रात में चंद्रमा। चंद्रमा घटता बढ़ता तो उसके एक पूरे गोले से दूसरे गोले तक होने में पता चला कि २९ से ३० के बीच सूर्योदय होते हैं। ऐसे १२-१३ बार होने पर वर्षा ऋतु पुन: आ जाती। इन कुल ३५४ दिनों को क्या नाम दें? बरखा रानी पर ही रख दें? नाम रखा गया - वर्ष ।
मनुष्य की मानसिक क्षमता बढ़ती गयी तो आगे उसे यह भी लगा कि १२ - १३ पूर्णिमा से अच्छा गणित तो उस समय में है कि जब ऋतु सुखदायी हो, चारो ओर फूल खिल रहे हों, नई पत्तियाँ हों। तब तक मनुष्य वस्त्र पहनने लगा था। उसे लगा कि उस विशेष ऋतु में पेड़ पौधे भी पुराने वस्त्र उतार कर नये पहन लेते हैं। उसका नाम रखा गया - वसंत। उस समय ऐसा भी होता कि एक विशेष दिन अन्य दिनों की तुलना में सूरज इधर उधर का झुकाव तज ठीक नाक की सीध में उगता। उस दिन रात और उजाले के समय भी सम होते। ऐसा वर्ष में दो बार होता किंतु विशेष ऋतु वसंत और इस विशेष स्थिति का यह योग लगभग ३६६ दिनों में आता। उसने इसे नाम दिया - विषुव, वसन्त विषुव ।
तब तक किसी भारतवासी को यह भी पता लग चुका था कि विशेष प्रभाव वाली ऋतुयें ६ होती हैं। गणना की क्षमता बढ़ ही चुकी थी तो ३५४ और ३६६ का औसत निकाला गया ३६०। यह संख्या जादू वाली थी। ३० से बँट जाती, ६ से बँट जाती, १२ से भी बँट जाती। ३० तो चंद्रमा से ही पता चला था, उसे नाम दिया चंद्रमास या मास। १२ - १३ के लगभग से ठीक ठीक १२ का सूर्य से ही पता चला था तो ३०-३० के १२ आदित्य बने जोकि सूर्य का भी नाम है। बड़ी अच्छी बात थी कि १२x३० = ३६०। तीस तीस के बारह आदित्य बारह मास के नाम हो गये। सूर्यनमस्कार में हैं न बारह नाम!
तब तक मनुष्य आकाश निहारने की कला में प्रवीण हो चुका था। उसने पाया कि चंद्रमा के रात का पथ दिन में सूर्य के पथ के लगभग साथ ही होता है। यह भी पाया कि जो तारे थे, वे सब मिल कर भिन्न भिन्न आकार बनाते थे तथा वे आकार कभी परिवर्तित नहीं होते थे अर्थात सूर्य चंद्र की तुलना में तारे स्थिर थे। उसने आकारों को नाम दे दिये जैसे सूँड़ जैसी आकार वाली आकृति इंद्र देवता की सवारी हाथी ऐरावत हो गयी। कुछ ने उसमें बिच्छू देख लिया, कहीं भालू मिल गया तो कहीं राजा का सिंहासन।
चंदा भी बड़ा चञ्चल था। गोले से घटते घटते एक समय जाने कहाँ चला जाता और अगले ही दिन से पुन: थोड़ा थोड़ा बढ़ते हुये दिखने लगा। एक पूरे से एक विलोपन तक का समय मास का आधा था जिसे नाम दिया गया पक्ष। एक वर्ष में हो गये २४ पक्ष।
आकाश को आज के कैलेण्डर की भाँति प्रयोग किया जाने लगा। चंद्र के पथ को २४ भागों में बाँट कर विशेष तारों के नाम पर उनके नाम रख दिये गये। बताने में सुविधा हो गयी कि चंद्र अमुक भाग में है आज तो कल दूसरे वाले में होगा।
किंतु एक बात और भी थी कि स्थिर व विशिष्ट तारों वाले किसी भाग विशेष पर चंद्र पुन: २७ से कुछ अधिक दिन में पहुँचता। अत: ठीक ठीक स्थिति बताने के लिये चौबिस में से तीन के दो दो भाग, पूर्व व उत्तर, कर कुल २४+३ = २७ भाग बना दिये गये। इन्हें नाम दिया गया नक्षत्र, नक्ष कहते हैं निकट आने को, ये भाग सूर्य व चंद्र के पथ के सदैव निकट थे, इनका कभी क्षरण नहीं होता था, इस कारण भी कहलाये नक्षत्र।
कुछ लोग इन ज्ञानियों से भी चतुर थे कि यदि २७ से कुछ अधिक दिन लगते हैं तो क्यों न एक अंश ले कर २८ भाग बना दिये जाँय! किंतु २८ पूरा तो होता नहीं था। उससे निपटने हेतु अंश की व्यवस्था की गयी।
गाय चार पाँवों पर खड़ी होती है। पाँव संस्कृत शब्द पाद से बना है। यह पाया गया कि नक्षत्र आधारित मास २७ पूरे दिनों से एक दिन के लगभग लगभग चौथाई भाग इतना अधिक होता है जिसे यह कहा गया कि अट्ठाइसवें नक्षत्र को चार में से केवल एक पाद का अर्थात चौथाई भोग ही मिले तथा उसकी हेठी न हो, इसलिये उसका सबसे अच्छा नाम रखा गया, सबसे शुभ - अभिजित, सदा विजयी।
परंतु काल भला मानव के बाँधने से बँध पाया कभी? वास्तव में कथित अभिजित का समय चौथाई दिन से थोड़ा अधिक होता था २७+(१/४)= २७.२५ न होकर २७.३। यही स्थिति अन्य की भी थी। वर्ष ३६५ या ३६६ न हो कर ३६५.२५ दिनों का होता, घटती बढ़ती कलाओं के सापेक्ष मास ३० का न हो कर २९.५ दिन में ही पूरा हो जाता।
इन सबके समाधान के लिये गणित की जटिल प्रक्रियायें बनाई गईं। रुचि हो तो और आगे की पढ़ाई में यह विषय ले लेना। अभी तो इसे ही ढंग से समझने का प्रयास करो।