कर, कार्य, कर्म आदि के मूल में कर, आप के अपने हाथ हैं। कर्म और श्रम की महत्ता प्रात:काल उठते ही स्वयं के हाथ देख उनमें लक्ष्मी और सरस्वती के साथ गोविन्द के दर्शन के निर्देश द्वारा बतायी गयी।
कराग्रे वसते लक्ष्मी करमध्ये सरस्वती। करमूले तु गोविन्द: प्रभाते करदर्शनम्॥
दर्शन का क्रम जो भी हो, गति की दिशा स्पष्ट है। कर्म के मूल में गोविन्द रहें, सुकर्म स्वत: सुनिश्चित। 'गो' का एक अर्थ इन्द्रिय भी है। पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ मिल कर कर्मी 'इन्द्र' को पराक्रमी बनाती हैं। आगे लक्ष्मी की प्राप्ति से पहले मध्य की सरस्वती विद्या आवश्यक हैं कि उत्कृष्टता, परिमार्जन और शुचिता बने रहें। इन सबके साथ से हर कर्म यज्ञ हो जाता है।
पावका न: सरस्वती वाजेभि: वाजिनीवती यज्ञम् वष्टु धियावसुः
चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम् यज्ञम् दधे सरस्वती
महो अर्ण: सरस्वती प्र चेतयति केतुना धियो विश्वा वि राजति।
- ऋग्वेद
- ऋग्वेद
(देवी सरस्वती जो पवित्र करने वाली हैं, पोषण करने वाली हैं और जो बुद्धि से किए गए कर्म को धन प्रदान करती हैं। हमारे यज्ञ को सफल बनाएँ। जो सच बोलने की प्रेरणा देती हैं और अच्छे लोगों को सुमति प्रदान करने वाली हैं। जो नदी के जल के रूप में प्रवाहित होकर हमें जल प्रदान करती हैं और अच्छे कर्म करने वालों की बुद्धि को प्रखर बनाती हैं। वह देवी सरस्वती हमारे यज्ञ को सफल बनायें।)
बसंत पञ्चमी पर्व की मंगल कामनायें। सरस विद्या आप के पराक्रम और लब्धि में संतुलन सहायिका बनी रहे।
बसंत पञ्चमी पर्व की मंगल कामनायें। सरस विद्या आप के पराक्रम और लब्धि में संतुलन सहायिका बनी रहे।
देवी सरस्वती हमारा, हम सबका मार्गदर्शन करती रहें। आपको बहुत धन्यवाद इस लेख के लिए।
ReplyDelete