भारतेन्दु हरिश्चन्द्र कृत नाटक 'अन्धेर नगरी' से -
छेदश्चन्दनचूतचम्पकवने रक्षाकरीरद्रुमे,
हिंसाहंसमयूरकोकिलकुले काकेषुलीलारतिः ।
मातङ्गेनखरक्रयः समतुलाकर्पूरकार्पासियो:,
एषा यत्र विचारणा गुणिगणे देशाय तस्मै नमः ॥
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सेत सेत सब एक से, जहाँ कपूर कपास।
ऐसे देस कुदेस में कबहुँ न कीजै बास ॥
कोकिला बायस एक सम, पंडित मूरख एक।
इन्द्रायन दाड़िम विषय, जहाँ न नेकु विवेकु ॥
बसिए ऐसे देस नहिं, कनक वृष्टि जो होय।
रहिए तो दुख पाइये, प्रान दीजिए रोय ॥
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