Tuesday, April 23, 2019

बृहदारण्यक, वसिष्ठ, बलि एवं आचमन


वसिष्ठ का अर्थ श्रेष्ठ(वरिष्ठ) होता है। क्षमा के कारण श्रेष्ठ हुये। क्षमा असामान्य होती है।
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देह के विविध उपादान आदि ब्रह्मा के पास पहुँचे कि बतायें हममें से वसिष्ठ कौन है? - को नो वसिष्ठ? 
ब्रह्मा ने कहा कि जिसके उत्क्रमित हो जाने से शरीर पापी माना जाता है, वही वसिष्ठ है -
 उत्क्रान्त इदशरीरं पापीयो मन्यते स वो वसिष्ठ।

(शरीर शब्द का अर्थ क्षरण से है, देह का विस्तार से। धातु अर्थ से युवावस्था में देह, स्थविर होने पर शरीर।)
पहले वाणी शरीर तज गयी, वर्ष भर में कुछ नहीं हुआ। ऐसे ही क्रमशः चक्षु, श्रोत्र, मन एवं जनन क्षमता; सब एक एक संवत्सर शरीर छोड़ छोड़ लौट आये किन्तु शरीर जीवित रही।
अन्त में प्राण ने उत्क्रमण करना अर्थात निकलना चाहा तो जैसे सैन्धव अश्व अपना खूँटा उखाड़ देता है, वैसे ही शेष सब को विचलित कर दिया। सबने उसे 'भगवान' कहते हुये अनुरोध किया कि आप न निकलें, आप के अभाव में हम जीवित नहीं रह सकते - भगव उत्क्रमीर्न वै शक्ष्यामस्त्वदृते जीवितुम!
प्राण ने कहा, ठीक है, तुम सब मुझे बलि प्रदान किया करो। सबने कहा- तथास्तु, ऐसा ही हो।
तस्यो मे बलिं कुरुतेति तथेति।
प्राण ने उनसे पूछा कि वह तो ठीक है, रहूँगा तो अन्न एवं वस्त्र भी चाहिये, वे क्या होंगे? किमन्नं किं वास?
उत्तर मिला कि कृमि, कीट, पतङ्गों से ले कर जितने देहधारी हैं, सब तुम्हारे अन्न हैं तथा जल ही तुम्हारा वस्त्र होगा - आश्वभ्य आकृमिभ्य आ कीटपतङ्गेभ्यस्तत्तेऽन्नमापोवास।
प्राण के अन्न को इस प्रकार से जानने वाले द्वारा भक्षित अन्न अभक्ष्य नहीं होता। जल को वस्त्र रूप में जानने वाले मनीषीगण जल का आचमन कर के ही अन्न ग्रहण करते हैं। प्राण को वस्त्र से रहित नहीं होने देते!
न ह वा अस्यान्नं जग्धं भवति नानन्नं परिगृहीतं य एवमेतदनस्यान्नं वेद तद्विदा
स: श्रोत्रिया अशिष्यन्त आचमान्त्यशित्वाचमन्त्येतमेव तदनमनग्नं कुर्वन्तो मन्यन्ते।

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यही श्रोत्रिय की दैनिक वसिष्ठ बलि है - वरिष्ठ, श्रेष्ठ। ध्यान दें कि देह में, शरीर में जब तक प्राण हैं, बलि हो रही है। यह चेतना रहे, इसके साथ पोषण करें तो आप मर्त्यलोक में ही किसी पारलौकिक आयाम के हो जायेंगे।
इस पर भी ध्यान दें कि अन्न एवं आहार को ले कर शाक एवं मांस का वाद विवाद उस स्तर पर बहुत ओछी बात है। कोई जिये तो वैसे!
आचमन का मर्म समझ में आया?
ब्रह्मविद्या या आत्मविद्या क्षत्रियों की कही गयी है। ऋषिगण अपने पुत्रों के साथ राजाओं से सीखने जाते थे। कर्तव्य पालन करता हुआ क्षत्रिय या कोई भी दिन रात बलिकर्म में है, वसिष्ठ को अग्रसर है जो कि राजन्यशिरोमणि इक्ष्वाकुओं का पुरोहित है। ताना बाना बहुत सुन्दरता से गढ़ा गया है, समझें तो!
चेतना के विविध स्तर हैं, एक ऊँचाई के पश्चात आहार गौण हो जाता है। वहाँ पहुँचें तो! 

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