Saturday, April 13, 2019

घृणा, ज्ञाति ... कुलं विष्णुपरिग्रहम्


कुलं विष्णुपरिग्रहम् 
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कश्यप एवं विनता के संतान गरुड़ के वंशजों में एक का नाम वाल्मीकि भी है। यह कुल परमवैष्णव है। ये कर्म से क्षत्रिय हैं। इनमें दया की भावना नहीं होती। ये सर्पों को अपना आहार बनाते हैं। इस प्रकार अपनी ही ज्ञाति का संहार करने के कारण इन्हें ब्राह्मणत्त्व प्राप्त नहीं है। [महाभारत, उद्योगपर्व] 
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अयं लोकः सुपर्णानां पक्षिणां पन्नगाशिनाम्
विक्रमे गमने भारे नैषामस्ति परिश्रमः
कश्यपस्य ततो वंशे जातैर्भूतिविवर्धनैः
वैनतेयसुतैः सूत षड्भिस्ततमिदं कुलम्
सुमुखेन सुनाम्ना च सुनेत्रेण सुवर्चसा
वर्धितानि प्रसूत्या वै विनताकुलकर्तृभिः
सुरूपपक्षिराजेन सुबलेन च मातले
पक्षिराजाभिजात्यानां सहस्राणि शतानि च
नामानि चैषां वक्ष्यामि यथा प्राधान्यतः शृणु
सर्वे ह्येते श्रिया युक्ताः सर्वे श्रीवत्सलक्षणाः
सर्वे श्रियमभीप्सन्तो धारयन्ति बलान्युत
ज्ञातिसंक्षयकर्तृत्वाद्ब्राह्मण्यं न लभन्ति वै
कर्मणा क्षत्रियाश्चैते निर्घृणा भोगिभोजिनः
काश्यपिर्ध्वजविष्कम्भो वैनतेयोऽथ वामनः
मातले श्लाघ्यमेतद्धि कुलं विष्णुपरिग्रहम्
दैवतं विष्णुरेतेषां विष्णुरेव परायणम्
सुवर्णचूडो नागाशी दारुणश्चण्डतुण्डकः
हृदि चैषां सदा विष्णुर्विष्णुरेव गतिः सदा
अनलश्चानिलश्चैव विशालाक्षोऽथ कुण्डली
गुरुभारः कपोतश्च सूर्यनेत्रश्चिरान्तकः
वातवेगो दिशाचक्षुर्निमेषो निमिषस्तथा
त्रिवारः सप्तवारश्च वाल्मीकिर्द्वीपकस्तथा
दैत्यद्वीपः सरिद्द्वीपः सारसः पद्मकेसरः
मेघकृत्कुमुदो दक्षः सर्पान्तः सोमभोजनः
सुमुखः सुखकेतुश्च चित्रबर्हस्तथानघः
विष्णुधन्वा कुमारश्च परिबर्हो हरिस्तथा
सुस्वरो मधुपर्कश्च हेमवर्णस्तथैव च
मलयो मातरिश्वा च निशाकरदिवाकरौ
एते प्रदेशमात्रेण मयोक्ता गरुडात्मजाः
प्राधान्यतोऽथ यशसा कीर्तिताः प्राणतश्च ते

दया हेतु शब्द प्रयुक्त हुआ है - घृणा। दया नहीं अर्थात निर्घृणा। सर्प हेतु शब्द प्रयुक्त है भोगिन् तथा जाति हेतु ज्ञाति। सर्पों को माता कद्रु की संतान माना जाता है। पिता कश्यप ही थे। इस प्रकार सर्प एवं गरुड में सौतेले भाइयों का सम्बंध हुआ। इससे यह सिद्ध होता है कि अपने रक्त कुल के लोग 'ज्ञाति' कहलाते थे जो जाति से भिन्न संज्ञा रही होगी। महाभारत में ही युधिष्ठिर को 'ज्ञातिनाश' से दु:खी बताया गया है। उससे भी यही अर्थ निकलता है। ... भगवान जी ने अपने एक लेख में ब्राह्मणों हेतु कहा था कि बौद्धों से द्वेष में उन लोगों ने अच्छे अर्थ वाले शब्दों के अर्थ उलट दिये। बौद्धों के यहाँ घृणा का अर्थ दया था जिसे ब्राह्मणों ने उल्टे अर्थ में प्रयुक्त किया। महाभारत की साक्षी अनुसार घृणा शब्द का प्रयोग उसके मूल अर्थ 'दया' हेतु ही है। यह एक महत्त्वपूर्ण साक्ष्य है जो उन लोगों के विरुद्ध पड़ता है जो महाभारत के वर्तमान रूप को बुद्ध का परवर्ती बताते हैं। मुझे लग रहा है कि चचा के पास या तो अन्य साक्ष्य भी हैं या उन्होंने शीघ्रता में यह निर्णय लिया है। संस्कृत कोश भी घृणा शब्द के दोनों, एक दूसरे के ठीक विपरीत' अर्थ बताते हैं। ... यह मात्र एक उदाहरण है कि एक एक शब्द के पीछे कितना कुछ बहुत पहले ही किया जा चुका है तथा परम्परा के लोग जाने कौन से संसार में हैं? कभी आप ने सोचा होगा कि 'घृणा' शब्द के अर्थ को ले कर भी तथ्याभास स्थापित किये जायेंगे? यह भी विचार करें कि उस एक अंश पर ही अटक कर मैं आज यह दे पा रहा हूँ जब कि वहाँ 'लाइक' एवं प्रणाम कर निकलने वाले बहुत हैं। भगवान जी को बहुत ध्यान से पढ़ा जाना चाहिये क्योंकि वह वामपंथी होते हुये दोनों पक्ष देख रहे होते हैं। ... हाँ, बर्बरीकदासानुयायी गण इस कारण मुझे कालनेमि कहने को स्वतंत्र हैं :) मैं तो मात्र यह समझता हूँ कि मेरे हाथ एक महत्त्वपूर्ण सूत्र लग गया है।

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