Friday, May 17, 2019

प्रतिमाओं में अनावृत्त स्तन

 
प्रतिमाओं में अनावृत्त स्तन दर्शाने का अर्थ यह नहीं कि कञ्चुक पहने ही नहीं जाते थे! उसका सम्बन्ध प्रतिमा सौन्दर्यशास्त्र से है जिसमें स्त्री हो या पुरुष, उभरे अंगों के ज्यामितीय सौन्दर्य को उभार कर विविध मुद्राओं में प्रस्तुत किया जाता था। मात्र शिल्प में ही नहीं, साहित्य में भी यही था। स्त्री यदि सुश्रोणी थी तो पुरुष भी वृषभस्कन्ध कहा जाता था।
स्तन एवं नितम्बों का सम्बन्ध मातृत्व से है। कुछ आधुनिक शोध भी देखियेगा कि curvaceous देह वाली स्त्रियाँ शिशु प्रजनन में अधिक समर्थ एवं लालन पालन में उन्हें अधिक सन्तुष्टि देने वाली होती हैं। आदि शंकर के स्तोत्र हों या किसी अन्य के; माता के अंग वर्णन में जो शिशु भाव है, उसे आप जैसी आधुनिकायें नहीं समझ सकतीं।
उत्तर में तो पुराना कुछ बचा ही नहीं, दक्षिण की पूजा प्रतिमाओं को देखियेगा, पुष्ट गोल स्तनों के चूचुक वस्त्र की एक तनु अलंकृत पट्टिका से ढके होते हैं। न, न, न, ऐसा इस कारण नहीं है कि न्यूनतम छिपाव रखना था या शिल्पी को कोई लज्जा थी।
आप का बच्चा तो गोद में रहता नहीं, चक्रपालने में ढोया जाता है। यदि उसे अपनी गोद में रखतीं, गोद का अर्थ जानतीं तो समझ पातीं। चलिये, बता देते हैं।
बच्चा जब रूदन करता है तो भोजपुरिया माँ उसे 'कोरा' में ले लेती है। कोरा संस्कृत का क्रोट है जिससे गोद भी बनी है।
क्रोट वह क्षेत्र होता है जो स्तनों को मध्य से बाँहों द्वारा घेरने से बनता है। उसमें शिशु जीवनदायिनी माँ के दुग्ध स्रोत के निकट होता है तथा उसके लिये वह सबसे सुखदायी क्षेत्र होता है, दूध पिये या न पिये।
जगज्जननी के हाथ तो आशीर्वाद मुद्रा में होते हैं। क्रोट या कोरा या गोद की पूर्ति उस अलंकृत पट्टिका से की जाती है जिससे कि भक्त उनके समक्ष हो तो शिशु एवं मातृभाव का एका हो जाय। हाँ, वह पाषाण प्रतिमा मात्र नहीं, प्राणप्रतिष्ठित साक्षात जननी होती है।
क्या है कि आप पूर्णतः भिन्न एवं निकृष्ट मञ्च पर हैं, वहाँ से उतरने पर भोग एवं भोजन, दोनों के लाले पड़ जायेंगे। उतरें न किन्तु अपना मुखविवर घृणित स्थापनाओं हेतु न खोलें।


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